तितर-बितर मन : एक बड़बड़ाहट तितर-बितर मन भीतर कुनमुना रहा एक आलाप जो अनगढ़ सपनों से बन पड़ा है. गला सूख रहा; सारे आदर्श वाक्य निस्तेज से हैं. सब समझ लेता है मन, उधेड़बुन पर जाती नहीं. दरक रहे केंचुल संस्कारों के, रेंग रही देह शाश्वत पहनावे में से. ताना-बाना नया-नया गढ़ता मन, कुछ बासी से प्रश्न ढहा देते उन्हें हर बार. आदत, जान गए हैं कि नहीं निभाए जा रहे नियत व्यापार बोरियत खूब समझती है अपनी वज़ह. मन, जुआठे के साथ नहीं लगा, पर चल रहा लगातार अटपट. चिंतन अपने चरम पर पहुंचकर शून्यता का लुआठा दिखा देता है, तर्कों से घृणा हो रही-एक लंबी उबकाई सी. सोच में कोई नए जलजले नहीं; और शायद ऐसी कोई कालजयी जरूरत भी नहीं. विचलित-विलगित आगत से..आगम आहट का कल्पित सौंदर्य.. भी बासी लगेगा जैसे. 'सापेक्ष' शब्द ने 'सत्य की खोज' का आकर्षण ध्वस्त कर दिया है. नए मूल्यों की खोज जैसी कोई बात नहीं; सुविधानुसार नामकरण कुछ आदतों का. बड़बड़ाना, एक जरूरत है, मुर्दे को ईर्ष्या है इस अदा से. सरकार, सर्कस की सीटी बजा रही, टिकट गिरे हैं जमीं पर. चंचल चित्त--ठीक है, ह...
टिप्पणियाँ
हिन्दीकुंज
लाजवाब अभिव्यक्ति ....!!