क्या हम कभी इतने 'सभ्य' नहीं रहे कि 'हाशिया' ही ना रहे...?





आज दीवाली है, खासा अकेला हूँ. सोचता हूँ, ये दीवाली, किनके लिए है, किनके लिए नहीं. एक लड़की जो फुलझड़ियॉ खरीद रही है, दूसरी बेच रही है, एक को 'खुशी' शायद खरीद लेने पर भी ना मिले, और दूसरी को भी 'खुशी' शायद बेच लेने पर भी ना मिले. हम कमरे साफ कर रहे हैं, चीजें जो काम की नहीं, पुरानी हैं..फेक रहें हैं, वे कुछ लोग जो गली, मोहल्ले, शहर के हाशिये पे और साथ-साथ मुकद्दर के हाशिये पे भी नंगे खड़े रहते हैं, उन्हीं चीजों को पहन रहे हैं, थैले में भर रहे हैं...ऐसे देखो तो कबाड़ा कुछ भी नहीं होता...ये भी सापेक्षिक है. २०,००० हो तो एक कोर्स की कोचिंग हो जाए, पढ़ा पेपर में कि--२०,००० के पटाखे भी आ रहे हैं, बाज़ार में. दीवाली, होली तो जैसे कोई और बैठा कहीं से खेल रहा हो जैसे..हम पटाखे, बंदूख, पिचकारी, रंग बनकर उछल रहे सभी...

अभी शाम को मैंने एक सिटी स्कूल के बगल बहती नाली से सटे बैठे दो छोटे बच्चे देखे--भाई-बहन. नंग-धड़ंग, काली-मैली, शर्ट-हाफ-पैंट, गंदी-फटी फ्राक--मिट्टी के दिए बना रहे थे वे. 'नगर-पथ' की मिट्टी से और नाली के पानी से ----इनकी दीवाली....? इनके पटाखे कौन फोड़ रहा है, कौन पहन रहा है इनके नए कपड़े..? मेरी आत्मा एक विडम्बना से दुत्कार रही है, मुझे--"आज अकेले हो तो 'हाशिया' याद आ रहा है..ठीक है उन दो बच्चों के लिए यथा संभव ही सही क्या कर दिया मैंने..? कैसे उम्मीद की जाये कि , कभी 'नगर-पथ' पर आ जाने पर नाली के निकट की धरती पर नज़र दौड़ा पाओगे..फिर हाशिया सूंघ पाओगे..?"
सचमुच, उम्मीद तो मुझसे भी नहीं की जा सकती, मन में उछाह तो बहुत है पर कर सकूंगा कभी कुछ, भरोसा कैसे दिला सकता हूँ, जबकि मै भी उसी सामाजिक व्यवस्था के मध्यमवर्गीय मूल्यों से पोषित-संस्कारित हुआ हूँ, जिससे मेरे अन्दर भी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं , पारिवारिक कुंठाओं के शमन का दबाव भरा पड़ा है...जबतक मुझे ही 'कुछ' पाना शेष है, मै 'दे' कैसे सकता हूँ..? ...और जानता हूँ, ये 'कुछ' कभी ख़तम नहीं होता है--वास्तव में यदि हाशिये को 'हरा' बनाना है तो अभी ही बहुत कुछ है अपने पास, जिसके सामने 'कुछ' की कम से कम अनिवार्य आवश्यकता तो नहीं ही है.. पर फिर वही--बाध्य हूँ..पापा, परिवार या अपनी व्यक्तिगत ईच्छाओं के प्रति मोह--छोड़ दूं सब, इतनी क्षमता नहीं, नैतिक साहस नहीं...इतना मै उदात्त नहीं...पर दृश्य, द्रवित जरूर कर जाते हैं....खैर चलते-चलते मानव-संस्कृति पर एक प्रश्न तो कर लूं..."क्या हम कभी इतने 'सभ्य' नहीं रहे कि 'हाशिया' ही ना रहे...?

#श्रीश पाठक प्रखर 

चित्र साभार: गूगल

टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…
हाशिये की जद्दोजहद शाश्वत है. कहीं खुशी है, कहीं गम है. वर्ग व्यवस्था है तो अमीर हैं, गरीब हैं. कहीं दूध की नदियाँ हैं तो कहीं पाला पड़ा है. इन सबके बीच सामंजस्य बैठाते जिन्दगी गुजाराना होती है..संवेदनशील हृदय कचोटता है, द्रवित होता है और फिर हम अपने आपको फंसा लेते हैं सामजस्य बैठाने में. ये सिर्फ दिवाली की बात नहीं..हर निवाले का प्रश्न है मगर कोई भी बात आखिर कब तक सालेगी-आदत बन जाती है इनके साथ जीने की.

अच्छा लगा आपके संवेदनशील हृदय के उदगार जानना.

सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-समीर लाल 'समीर'
M VERMA ने कहा…
लगता है आप सच का सामना कर बैठे!! वास्तव मे जिस सच का सामना होना चाहिये वह तो यही है.
..."क्या हम कभी इतने 'सभ्य' नहीं रहे कि 'हाशिया' ही ना रहे...?
हाशिये शाश्वत तो नही रहे है. व्यक्तिगत बडा सुख छोटे-छोटे अनगिनत लोगो मे अनगिनत दुखो को जन्म देने के बाद ही जन्मता है.
संवेदनशील रचना और प्रभावी शैली के लिये साधुवाद
परुआ के दिन हाइवे पर चलते हुए पहली बार टिप्पणी लिख रहा हूँ और सोच रहा हूँ भारत कितना आगे हो गया। इतना चिक्कन हाइवे कि आप लैप्टॉप पर टाइप कर सकते हैं - वह भी नागरी लिपि में। इस समय दुनिया के किसी कोने से मैं सम्पर्क कर सकता हूँ - एक सरकारी नेटवर्क के माध्यम से ! ... भारत में सम्भावनाएँ बहुत हैं बन्धु ! हासिए तो हर समाज में रहे हैं और रहेंगे। देखना यह है कि मुख्य वक्तव्य पढ़्ने /लिखने वाले हासिए पर कितना लिखते हैं या संशोधन के अक्षर लिखते हैं !....
जितना कुछ कर सकते हैं करें - सेतुबन्ध की गिलहरी तो याद है न ! मैं करता रहता हूँ, चुप चाप । सफलता रेट 20% लेकिन मैं 20 देखता हूँ 80 नहीं।...अब पोस्ट लिखने जैसा हो रहा है। बहक जाऊँगा तो बात बढ़ जाएगी ;)
शीर्ष शब्द नागरी में कर दीजिए। व्यक्तिगत अनुरोध है - आगे आप की मर्जी।
हरकीरत ' हीर' ने कहा…
इनकी दीवाली....? इनके पटाखे कौन फोड़ रहा है, कौन पहन रहा है इनके नए कपड़े..?

ह्रदय को झकझोरते प्रश्न खडे कर दिए हैं आपने ....कौन है इसका जिम्मेदार ...???
tumse kaha tha mere yahan chale aao. sath me bhojan-paani hoga.........lekin likh kaise paate. achchha likha hai. samvedanshil post.
Anil Pusadkar ने कहा…
जाने क्यो खुश होकर भी दिल उदास हो जाता है जब फ़ुटे पटाखों के कचरे मे बिना फ़ूटा पटाखा ढूंढते बच्चों को देखता हूं,क्यों दीवाली-दीवाली मे फ़र्क़ है।बहुत सही लिखा आपने।आपको दीवाली की शुभकामनाएँ
शरद कोकास ने कहा…
हम सभी मूलत: तो सम्वेदंशील हैं लेकिन उन्माद मे हम क्रूर भी हो जाते हैं .उस वक्त हमे यह बच्चे नही दिखाई देते । ठीक उसी वक्त यह व्यवस्था हमारी भावनाओ पर प्रहार करती है और हम समझौते करने लगते हैं ।
हाशिये तो ऊपर से ही बन कर आते हैं...जब बनाने वाला खुद हाशिया खींचे बैठा है तो फिर हम-आप क्या चीज़ हैं...ऐसा न होता तो फिर सभी ऐश्वर्या और सभी धर्मेन्द्र न हो जाते.....
हाशिये तो रहेंगे ऐसे नहीं तो वैसे...
लेकिन अच्छा लगा जान कर की आप एक संवेदनशील ह्रदय रखते हैं....
प्रश्न सामयिक है, परंतु यह भी सही है कि अगर आप किसी की मदद करते हैं तो कैसे जान सकते हैं कि आप जिसकी मदद कर रहे हैं उन्हें वाकई उसकी जरुरत है और वह उसी मद में खर्च कर रहे हैं। जितना बड़ा प्रश्न सहयोग करने का है उतना ही बड़ा उसे सही जगह करने का है। बिल्कुल जैसे अमेरिका ने पाकिस्तान को सहयोग दिया पर उसने पाकिस्तान ने उस सहयोग राशि को कैसे खर्च किया ये तो सब जानते हैं। बस उसको ही आप अपने सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ले लें।
संवेदनशील पोस्ट...
Meenu Khare ने कहा…
बहुत मर्मस्पर्शी लिखा है श्रीश ! मन उदास हो गया.
samvedanshil rachna..........sabhyta ? pata nahi kis kone me gum hai !
सदिओं से बहुत कुछ समाज मे ऐसा है जो संवेदनशील इन्सान को कचोटता है मगर असहाय सा वो भी कुछ नहीं कए पाता बहुत अच्छा लगता है कि आज भी दुनिया मे संवेदनशील इन्सान हैं वरना अधिकतर तो चलती फिरती लाशें ही मिलेंगी। आपको पढना बहुत अच्छा लगता है मग्र कुछ दिन से तबीयत सही न होने से अधिक ब्लागज़ पर जा नहीं पाती। शुभकामनायें
shama ने कहा…
Maine abhi gaurse padhna hai, jo kal padhungee..lekin kuchh jhalkiyan to le lee..bada rochak lag raha hai..!
Filhaal to janam din kee badhayee dee, iska shukriya ata kartee hun!

http://shamasansmaran.blogspot.com

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Arvind Mishra ने कहा…
मैं कुछ असहज सा हो गया हूँ -मैंने इस पोस्ट को पढ़ टिप्पणी किया था पर दिख नहीं रही !
बहरहाल मुख्य पन्ने से हाशिये की ओर और हाशिये से मुख्य पन्ने की ओर अतिक्रमण भले ही गाहे बगाहे हो मगर एक अहर्निश
प्रक्रिया है -मायने केवल यह रखता है की मजमून और मुद्दआ क्या है ?
आत्मदीपो भव !
Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…
आदरणीय अरविन्द जी मैंने टिप्पणियों के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की हैं..संभव है ये इन्टरनेट की कोई गड़बड़ी हो...मै पुनश्च आभारी हूँ आपका...
alka mishra ने कहा…
हाशिये हमेशा रहे हैं और रहेंगे भी ,ये कुछ तो प्रकृति का नियम है कुछ सत्तासीनों की चाहत
खैर खलीलाबाद में कहाँ रहते हो आप
अपने जनपद का कोई पहला ब्लॉगर मिला
मेरी शुभकामनाएं
premlata ने कहा…
देर से पहु~म्ची हूँ पर ...
अबोध हैं ज़माने की हवा ने प्रवाहित नहीं किया है आपको वरना तो आपकी उम्र के लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने रईसी का प्रदर्शन करने को दिवाली मनाना कहते हैं।

समीरभाई की टिप्पणी पर ध्यान दें ’सामंजस्य बैठाते जिन्दगी गुजाराना होती है...’

बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
"दृश्य, द्रवित जरूर कर जाते हैं..."संवेदित कर गये शब्द मन को .......आपके मन की दुविधा पर कुछ नही कहना चाहूगा .....काफी कुछ कहा जा चुका है ऊपर ...और एक अर्थ में देखा जाय तो यह दुविधा शाश्वत है .......हो सके तो सीताकांत महापात्र की किताब "तीस कविता वर्ष " की पहली कविता "कविता फिर एक बार " पढियेगा ....मै जो कहना चाहता हूँ स्पष्ट हो जाएगा .....कविता थोड़ी लम्बी है अन्यथा मै यही दे देता .......
सदा ने कहा…
आपेन बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपकी अन्‍य रचनाओं को भी पढ़ा बहुत ही भावपूर्ण प्रस्‍तुति लगी आभार सहित बधाई
अर्कजेश ने कहा…
आपकी बात सही है , हम इतने सभ्य और संवेदनशील नहीं हुए हैं कि हाशिये की रेखा मिटा सकें, पता नहीं अभी और कितना समय लगेगा ।

इसकी वजह तो संवेदनशीलता का अभाव ही है ।
शोभना चौरे ने कहा…
संवेदन शील होना अलग बात है और संवेदन शील कविता या आलेख लिखना अलग है |और हाशिये यही से शुरू होते है \
अपनी इस छोटी उम्र में जिंदगी को बहुत नजदीक से देखा है आपने आगे बहुत कर सकते है आप |
शुभकामनाये
अपूर्व ने कहा…
भई श्रीश जी..पोस्ट को थोड़ा सा लेट देखा मगर क्या खूब देखा...हमारे जैसे न जाने कितने लोगों की अव्यक्त भावनाओं को धूप दिखा दी आपने..११०% फ़ीसदी सहमत हूँ आपसे..मगर हम जैसे जैसे-तैसे भरे पेट वालों की नपुंसक संवेदनशीलता और क्षु्ब्ध बहानेबाजी का ही तक़ाजा है यह कि आसपास के दयनीय हालात देख कर पैदा होने वाले असहनीय गैस-अफ़ारे से साहित्यिक कॉमोड पर बैठ कर निजात पा लेते हैं और फिर से हल्का महसूस करने लगते हैं..और फिर यह जिंदगी और उसकी हवस निहायत ही कमीनी चीज होती है..आप भी समझते होंगे!!
लिखते रहिये आप ऐसे ही..पढ़ते रहेंगे हम!
Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…
हाशिये के बहाने जिंदगी के सच को बयां किया है आपने। अच्छा लगा आपकी सत्यान्वेषी दृष्टि से साक्षात्कार करके।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
shyam1950 ने कहा…
प्रिय श्रीश जी जमीन के ऊपर पेड़ तो हम सब रोज ही देखते हैं सवाल जड़ों में उतरने का है आत्मस्वीकृतियों का भी अपना महत्त्व है लेकिन इनसे आगे भी निकलना होगा सवाल यह है की परमात्मा ने यह जो इतनी सुन्दर सृष्टि रची है क्या दुखी होने के लिए रची है या की दुःख का सृजन हमने स्वयं किया है और किये जा रहे हैं जीवन को उसकी समग्रता में देखिये... /शुक्र ये है की आप जैसे देखने वाले कुछ लोग हैं अभी दुनिया में/...फिर देखिये जडें कहाँ पर हैं ... आप पाएंगे सारी विकृतियों के मूल में परिवार और उससे प्राप्त संस्कार हैं जन्म से लेकर मरण तक के सभी संस्कार सिर्फ इसलिए की आदमी का अहंकार पुष्ट होता रहे..

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