लेकॉनिक टिप्पणी का अभियोग ........ऐसा है क्या....? प्रेरणा : आदरणीय ज्ञानदत्त जी...
आजकल व्यस्त हूँ, या यूँ कहें कुछ ऐसा ही रहना चाहता हूँ. मै जिस मध्यम स्तरीय पारिवारिक विन्यास से हूँ वहां अभी कुछ समय पहले तक सेलफोन भी विलासिता का प्रतीक माना जाता रहा है तो लैपटॉप और उसमे भी इन्टरनेट कनेक्शन...शायद सरासर विलासिता. अभी मेरा कैरियर मुझसे और ढेर सारा पसीना मांग रहा है और चाहिए उसे स्पर्श integrated and comprehensive time management का. तो समय मेरे लिए केवल कीमती ही नहीं है वरन उसका असहनीय दबाव भी रहता है लगातार. लिखना अच्छा लगता है तो ब्लागरी पर नज़र गयी. अचानक से ब्लोगिंग हाथ लगी और हम आ गए धीरे-धीरे रौ में. पर एक अपराध बोध लगातार चलता रहता है मन में कि शायद मेरी दिशा ठीक नहीं है. शायद मै समय गवां रहा हूँ या ब्लागरी तो कभी की जा सकती है. या ऐसा भी क्या है ..मिलता क्या है..कुछ/न्यूनाधिक टिप्पणियां...!!!
अपराध-बोध का कम होते जाना :
शुरू में बस लिखता गया. ब्लाग-एग्रीगेटर्स के बारे में कुछ पता नहीं था. मुझे लगता था कि एक डायरी सा है जो आनलाईन है, any time easily accessible and available है. डायरी के पन्ने तो पीले पड़ जाते हैं और डायरी भर भी जाती है तो ब्लॉग अच्छा है. टिप्पणियों की आवक बिलकुल भी नहीं थी. कोई गम इसलिए नहीं था क्योंकि इतनी अपेक्षा ही नहीं थी ब्लागिरी से. मै जानता था कि मै अमिताभ बच्चन नहीं हूँ. और सेलिब्रिटी के अलावा जो लोग लिख रहे हैं वे बस लिख रहे हैं. मै ब्लागरी में जीमेल के मोर आप्शन पे क्लिक करके आया. किसी को नहीं जानता था अपने आस-पास जो ब्लागिरी करता हो. एक बेहद अच्छे विश्वविध्यालय के सबसे सीनीयर होस्टल में रहता हूँ तब भी ये सच है. कारण ये, क्योंकि लोग इसे सीरीयसली नहीं लेते हैं अभी भी. तो मुझे कुछ पता नहीं था. हिंदी टाइपिंग के लिए गूगल का इंडिक ट्रांसलिटरेशन नहीं जान पाता तो फिर मूढ़ ही बना रहता. जाने कैसे चिट्ठाजगत और फिर ब्लागवाणी पर नज़र गयी. फिर मेरे सामने था एक अकल्पनीय समुद्र और जिसमे मै था कूदने को उद्यत. चिट्ठाजगत और फिर ब्लागवाणी से ही जान पाया अच्छे ब्लागेर्स के बारे में. मैंने लिखना बंद कर दिया, बस पढ़ता गया. दिन-दिन पढ़ता गया. कोई मानेगा नहीं रात-रात भर मैंने गुजार दी है ब्लॉग पढ़ने में. टिप्पणियों में लिखा जा रहा आशुलेखन भी देखा. टिप्पणियों की ताकत देखी. जाना कि कैसे-कैसे दिग्गज लिख रहे हैं अविराम. मुझे जो यहाँ मिलने लगा मेरा अपराध बोध कम होते गया. आदरणीय ज्ञानदत्त जी, समीर जी, अरविन्द जी, डा. प्रवीण चोपड़ा जी की लगभग सारी पुरानी प्रविष्टियाँ पढी है मैंने. मेरा भ्रम दूर हो गया. जाने कितनों से मैंने कहा ब्लागिरी के बारे में. इसके समक्ष अखबार की limitation पर बात की. आज यकीन से कहता हूँ कि हिंदी ब्लागरी में ऐसे कम से कम {जी हाँ कम से कम} १०० से १५० चिट्ठे हैं जिन्हें नियमित पढ़ा जाना चाहिए.
ब्लाग: एक विधा के रूप में :
मै हिंदी साहित्य का विद्यार्थी कभी भी औपचारिक रूप में नहीं रहा हूँ, राजनीतिशास्त्र का ही अध्ययन किया है पर साहित्य की असीमितता मुझे प्रारंभ से ही आकर्षित करती रही है. मुझे अक्सर संवेदनाएं जीवन का सच समझाती रही हैं बजाये तर्क के. अक्सर मैंने अपने कैम्पस के हिंदी साहित्य के वरिष्ठ विद्यार्थियों से 'ब्लॉग एक विधा के रूप में' विषय पर चर्चा की है और उनके अकादमिक तर्कों का खंडन कुछ ख़ास ब्लागर्स के ब्लाग्स दिखा कर किये हैं. क्या मुझे कहना होगा कि आदरणीय ज्ञानदत्त जी, समीर जी, अरविन्द जी, गिरिजेश जी, दर्पण शाह जी, डा.प्रवीण जी.,डा.अनुराग जी, अफलातून जी, अपूर्व जी, सागर साहब, अदा दी, हिमांशु जी, निर्मला जी, शरद जी,अनूप जी ...,...,,.., (मै सबके नाम नहीं ले सकता..मेरी क्षमता के बाहर की बात है..मैंने ब्लागरी में जाने कितनों से प्यार, विश्वास और साहस अर्जित किया है) आप कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने हिंदी ब्लागरी को एक अद्भुत मुकाम पर पहुंचा दिया है. यहाँ एक समानांतर और रीयल टाईम जीवंत साहित्य रचा जा रहा है, जो कदाचित मुख्यधारा के साहित्य से किसी भी समय टक्कर लेने की विनम्र हैसियत रखता है.
टिप्पणियों की भूमिका :
नामवर सिंह कहते हैं कि ब्लागिरी का एक अनुशासन होना ही चाहिए.
किसी मानद पत्रिका में आपका लेख छपता है तो फिर उसमे फेर-बदल की गुंजायश न्यूनतम होती है. संपादक, लेखक व पाठकों का संवाद तो होता है पर वो ना उतना प्रभावी ही होता है और ना ही उपयुक्त समय पर. लेकिन ब्लागिरी अद्भुत है. लेखक लिखते समय इस जिम्मेदारी से ओत-प्रोत होता है कि उसका काम यहीं ख़तम नहीं हुआ है, अभी उसे टिप्पणियों के जवाब देने पड़ सकते हैं. ऐसी कोई अराजकता नहीं फैलाई जा सकती हिंदी ब्लागरी में जिसे महज टिप्पणियों की ताकत से अनुशासित नहीं किया जा सकता. टिप्पणियां रचनाओं को और ज्यादा विस्तार देती हैं..रचना में रूचि भर देती हैं और अक्सर एक सार्थक बहस शुरू करती हैं. एक नए रचनाकार में आत्मविश्वास भरती हैं और देती हैं साहस कुछ और नए प्रयोग करने का.
आदरणीय ज्ञानदत्त जी से :
"टिप्पनिवेस्टमेण्ट " शायद कुछ इसी तरह का शब्द इस्तेमाल किया था आपने. उस संकेत को ध्यान में रखिये और विचारिये मेरी सहज अपेक्षा कम से कम आप जैसे वरिष्ठ और आदरणीय ब्लागेरों से.
काश कि आपकी टिप्पणियां laconic होतीं लगभग हर बार. बहुधा वो महज संक्षिप्त रह जाती हैं. laconic एक adjective है जिसके माने है..using few words; expressing much in few words; concise: a laconic reply.
मुझे दुःख इस बात का नहीं कि आप मुझ पर कितनी टिप्पणियां करते हैं अथवा कितनी बड़ी करते हैं, पर मुझे बर्दाश्त नहीं होता जब अपूर्व, दर्पण, सागर जी ,अमरेन्द्र, हिमांशु जी जैसे प्रयोगवादी युवा भी जो कि सहज ही उत्कृष्ट लिखते हैं उनपर आपकी कामचलाऊं टिप्पणियां देखता हूँ. एक ब्लागर के तौर पर आप गंभीर गद्य के अतिरिक्त लेखन की उपेक्षा नहीं कर सकते. टिप्पणी मत करिए..ऐसी कोई आवश्यकता नहीं पर अपनी सहज जिम्मेद्दारी से आप यह कहकर पीछा नहीं छुड़ा सकते कि--"श्रीश> अरे मूर्ख श्रीश..! टिप्पणी बड़ी नहीं करते...वरिष्ठ ब्लोगरों से सीखो.वरिष्ठ ब्लॉगरों से कम अब्राहम लिंकन से अधिक सीखो। उन्होने कहा था कि मैं छोटा पत्र लिख सकता था, पर मेरे पास समय कम था! "
एक ब्लागर जो लगभग रोज ब्रह्ममुहूर्त (प्रातः ४.०० बजे) में अपनी अमूमन बेहतरीन पोस्ट डालता हो, सुबह के लगभग ८.०० बजे तक अपने पोस्ट पर आने वाली टिप्पणियों को approve करता हो. वो ये कहे कि उसके पास समय कम है...
आदरणीय ज्ञानदत्त जी आप जैसे लोग परंपरा बनाते हैं,,,आगे चलकर युवाओं से प्रश्न करने का अधिकार ना खो दीजियेगा, दर्द मुझे भी होगा और नुक्सान हिंदी ब्लागरी का भी होगा. मै आपका बेहद सम्मान करता हूँ, यह मुझे कहना पड़ रहा है यकीन मानिए शर्मिंदा महसूस कर रहा हूँ. पर मै उन लोगों से नहीं डरता जो युक्तियुक्त तर्क-प्रणाली में आस्था रखते हैं चाहे वो कितना ही अनुभवी क्यूँ ना हों, कितनों भी वरिष्ठ क्यों ना हों..
आज आपने एक पोस्ट लिखी, मुझ जैसे अदने को कारण बनाया. आपकी सहज प्रशंसा के शायद मै लायक नहीं. गलत वज़ह से (शायद गलत वज़ह से ) आपकी पोस्ट में मेरी चर्चा हुई अपने को रोक नहीं पाया. टाइपिंग स्पीड मेरी बड़ी ही धीमी है और कष्टसाध्य भी पर मुझे अच्छा नहीं लगा तो अपनी सफाई लिखने बैठ गया सुबह-सुबह ही. खैर एक बार फिर कहता हूँ आपसे ज्यादा अपेक्षा रखने लगा हूँ और आपको एक जिम्मेदार,प्रखर वरिष्ठ ब्लागर मानता हूँ सो अपनी आपत्ति जता दी थी, यदि महामना को इतना बुरा लगा है तो माफी चाहता हूँ. बाकी आप स्वतंत्र हैं मेरे वाक्यों के विविध connotations लेने के लिए. मेरी इस पोस्ट की भाषा शायद कुछ रुखी हो गयी है तो पुनश्च क्षमा कर देवें..!
साथी ब्लागरों से:
मै ब्लागरी को महज भड़ास नहीं मानता. अनावश्यक लल्लो-चप्पो से बचिए. इससे लेखक और पाठक दोनों का नुक्सान होता है. अपनी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी हमें यदि हिंदी ब्लागरी को यथास्थान और उससे भी अधिक सशक्त बनानी है तो...!!!
अपने-आप से :
कोई टिप्पणियां कैसे करे यह तो टिप्पणीकार की व्यक्तिगत स्वंतंत्रता है. वह इसकी व्यापकता को स्वीकारे या ritually इस्तेमाल करे. मै, श्रीश पाठक कौन होता हूँ.......???
चित्र साभार : आदरणीय ज्ञानदत्त जी
चित्र साभार : आदरणीय ज्ञानदत्त जी
टिप्पणियाँ
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सांसद/विधायक की बात की तनख्वाह लेते हैं?
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा ?
यह कोई प्रतिक्रिया नहीं, सायास क्रिया भी नहीं - सहज उच्छलन है !
ब्लॉगिंग अपने कारनामे दिखा रही है भाई, टिप्पणी की उसमें बड़ी भूमिका है । मैंने भी कुछ बातें की थीं कभी टिप्पणी के शास्त्र को लेकर - देखना चाहें तो यहाँ व यहाँ देखें ।
लिखते अच्छे हो। लेखन जारी रखो।
किसी भी लेखक को उसकी टिप्पणीयों से नहीं आँकना चाहिये सभी मेरी तरह रिटायर तो हैं नहीं कि जिन्हें सारा दिन यही काम है। फिर भी हर पोस्ट पर बडी तोप्पणी सम्भव नहीं हो पाती। आपकी पोस्ट सब के लिये चिन्तन का विषय बन गयी है शुभकामनायें। आप जैसे चिन्तक और सूझवान लेखक की ब्लागजगत को बहुत जरूरत है। ये बेबाकी कम ही देखने को मिलती है।
अगली पोस्ट का इन्तज़ार रहेगा शुभकामनायें
नामवर सिंह कहते हैं कि ब्लागिरी का एक अनुशासन होना ही चाहिए.
किसी मानद पत्रिका में आपका लेख छपता है तो फिर उसमे फेर-बदल की गुंजायश न्यूनतम होती है. संपादक, लेखक व पाठकों का संवाद तो होता है पर वो ना उतना प्रभावी ही होता है और ना ही उपयुक्त समय पर. लेकिन ब्लागिरी अद्भुत है. लेखक लिखते समय इस जिम्मेदारी से ओत-प्रोत होता है कि उसका काम यहीं ख़तम नहीं हुआ है, अभी उसे टिप्पणियों के जवाब देने पड़ सकते हैं. ऐसी कोई अराजकता नहीं फैलाई जा सकती हिंदी ब्लागरी में जिसे महज टिप्पणियों की ताकत से अनुशासित नहीं किया जा सकता. टिप्पणियां रचनाओं को और ज्यादा विस्तार देती हैं..रचना में रूचि भर देती हैं और अक्सर एक सार्थक बहस शुरू करती हैं. एक नए रचनाकार में आत्मविश्वास भरती हैं और देती हैं साहस कुछ और नए प्रयोग करने का.
पूरा लेख बहुत सटीक और सार्थक ....... उपरोक्त गद्यांश बहुत अच्छा लगा..........
इस पोस्ट से पहले सुपर लेकॉनिक टिप्पणी करके आपके दर पर आया तो शायद यह सोच कर कि यहाँ भी वैसी ही सुपर लेकॉनिक टिप्पणी करके निकल जाऊँगा?
पर आप की पोस्ट के बाद हिम्मत नहीं पड़ी| जहाँ तक बड़ी ही बेबाकी से आपके प्रश्नों का सवाल है मैं समझता हूँ कि कुछ हद तक वह जायज हैं ......पर उससे आगे भी एक हद है .....उसके बाद आप उम्मीद तो कर सकते हैं पर बाध्य नहीं?
टिप्पणियों की तो बात छोड़िये गुणवत्ता परक टिप्पणियों के विषय में भी यही पूरी तरह से कह सकता हूँ | चूँकि ज्ञान जी को मैं पसंद करता हैं कई कारणों से! ....... केवल इस सत्य के बावजूद उन लेकॉनिक टिप्पणियों से मै कई दिशाएँ पा चूका हूँ(परम सौभाग्य के बावजूद) .....सो मुझे आपकी भावुकता पर अधिक नियंत्रण की आवश्यकता लगती है|
फिर ब्लॉग जब अभिव्यक्ति का माध्यम है तो उस अभिव्यक्ति की आखें किस ओर यह तय करना शायद टिप्पणीकर्ता का ही विशेषाधिकार है ? फिर ना टीपना भी कम बड़ी टिप्पणी तो नहीं?
ज्ञान जी ने आपको हिट कर दिया भैये!!!
मस्त रहिये -व्यस्त रहिये!!!
:)
.कभी कभी असहमतिया विचारो के लिए नए दरवाजे खोलती है ..
.बाकी उनके ब्लॉग पर लिख चूका हूं......
और मुझे डिक्शनरी नहीं डिक्शनरियाँ देखनी पड़ गयीं ! लूकोनिक में जो सक्षिप्ति होती है वह नकचढेपन की ही होती है -मतलब अन्गेरेजी का रयूड ! और इससे तो बचना ही चाहिए ! हाँ बिना रयूड हुए संक्षिप्ति तोस्वागत योग्य है ! वो कहते हैं न संक्षिप्तता ही
वक्तृति/वाग्वैदग्ध्य की आत्मा है -ब्रेविटी इज द सोल आफ विट !
अपने वय के युवाओं में (युवतियां से दीगर !आफ कोर्स !! क्योकि एक मोहतरमा मेरी पसंद की हैं मगर इन दिनों बहुत नाराज चल रही हैं ) ...... आपका लेखन मेरी पहली पसंद बनता गया है ! शाबाश !
टिप्पणियाँ हिन्दी ब्लॉगरी में एक विशिष्ट स्थान बना चुकी हैं। इसका कारण हिन्दी का और हिन्दी जनों का स्वभाव ही है। ब्लॉगरी एक नई विधा बन कर उभरी है। इसके प्रति आप की बातों से मैं सौ प्रतिशत सहमत हूँ।
इतनी सजगता और संवेदनशीलता ! मुग्ध हो गए।
लेकिन यह भी सच है कि ब्लॉगरी करने के सबके अपने अपने कारण होते हैं। टिप्पणियाँ करने के भी अपने अपने कारण होते हैं। निर्मला जी की बात में दम है -एक पाठक यदि आप की खुली डायरी पढ़ कर आनन्दित होता है तो वह और भी पढ़ना चाहेगा। बेचारे के पास समय कम है, क्या करे? टिपियाए न या उपस्थिति जता कर चला जाए या कुछ लेखों पर मनोयोग पूर्वक टिप्पणी करे और बाकी पर मौन ही रह जाय। मैं अपने को तीसरी श्रेणी का मानता हूँ।
यह भी सही है कि कुछ ब्लॉगर प्रिय हो जाते हैं जिनकी पोस्ट ढूढ़ कर टिप्पणी की जाती है... विराम देता हूँ, लम्बी हो जाएगी।
वैसे प्राइमरी वाले मास्साब की बात में दम है - चचा ने आप को हिट कर दिया। वो वाला नहीं जैसे फिल्में हिट होती हैं वैसे :)
लिखते रहिए। उन्मुक्त, बढ़िया ...टिप्पणी सिप्पणी तो आती जाती रहेगी। मेरी कई पोस्टें ऐसी भी रही हैं जिन पर शून्य या इकाई संख्या में टिप्पणियाँ रही हैं। निरंतरता, ईमानदारी और सजग लेखन के मामले में जय हिन्दी वाले बालसुब्रमण्यम जी मेरे आदर्श हैं। किन्हीं कारण वश उन्हों ने लिखना बन्द किया हुआ है लेकिन मैं तो उनका फैन हूँ। टिप्पणियाँ उनके यहाँ भी कम आती हैं।
नहीं तो इस 'देवप्रिय !' की खैर नहीं ... :) :) :)
भैया मैं अपनी ओर से क्या कहूँ ... ज्यादातर लोग तो अपनी राय रख
चुके हैं ..हाँ , बहत्तर छेद वाली चलनी भी बोलने से बाज थोड़े ही आती है,
सो अहम् बोलामि...
--- मन भर निष्क्रिय-प्रभावहीन-चमकाऊ-दांतचियारू-मूक-अंध-पंगु-बधिर-
फर्जअदाऊ-कर्जचुकाऊ-आदि-आदि से छटाक भर यथेष्ट-वाणी-श्रम श्रेष्ठ है ..
--- मेरा तो यह मानना है कि अगर कभी कोई बिना टिप्पणी किये यानी प्वाइंट
इत्यादि रख कर चला जाय तो उसे ' रिक्त - टिप्पणी ' का सौंदर्य मान लेना चाहिए ,
क्योंकी यह भी लेखक पर एक प्रभावकारी टीप कही जायेगी .. संवाद के लिए उसे अगली
पोस्ट पर ललकारिये .. या उसपर भी .. [ जैसे यहाँ ...]
--- भाषा सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम है फिर भी कभी-कभी टिप्पणी-कर्ता और
लेखक के बीच एक दूरी बन जाती जाती है , ऐसी स्थिति में 'धैर्य' जैसे शब्द को शब्द-कोश से
निकल कर दिमाग में रख लेना अमानुस तो कतई नहीं बनाएगा ...
--- कोई किसी को हिट या पिट नहीं करता या कराता ... '' है परंपरा लग रही यहाँ / ठहरा जिसमें
जितना बल है '' ..
........................ श्रीश भाई , आपने बड़ी बेबाकी से अपनी बात रखी ,,,,,,,,,,,, आपके बेबाकपने
को सलाम ... ...
सही है, जो मन आए लिखना ही चाहिए.
@ --- कोई किसी को हिट या पिट नहीं करता या कराता ... '' है परंपरा लग रही यहाँ / ठहरा जिसमें
जितना बल है '' ..
भाई अमरेन्द्र जी वाह!
__________
ये वाली लेकॉनिक तो नहीं? भाई हम टिप्पणी पर टिपियाए हैं - पोस्ट पर नहीं। अब इस पर भी बहस होनी चाहिए कि टिप्पणी पर टिपियाना भी लेकॉनिक हो सकता है या नहीं ? ;)
nice और ऐसी टिप्पणियों से हम शुरू में आतंकित रहते थे। सोचते थे कि आदमी कॉफी के बारे में बात कर रहा है या पोस्ट के बारे में?
बाद में nice को nice बन कर स्वीकारने लगे। और कोई चारा भी तो नहीं है। मिटाने पर टिप्पणी करने वाले के लिए अ-nice हो जाएँगे। शायद टी आर पी भी कम होती है। बहुत दु:ख दर्द हैं ब्लॉगरी की दुनिया में ! ....
तुमने अपने संवेदनशीलता का परिचय तो दिया ही है..साथ ही साथ अपनी निश्छल सहजता से एक ऐसे मुद्दे की बात की है जिसे सभी महसूस करते हैं लेकिन बोलता कोई नहीं है....कारन....बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ??? ब्लागगिंग में तिपन्नियों की महत्ता लोगों ने इतनी बाधा दी है....की आपकी पोस्ट 'हिट' है या नहीं ये टिपण्णी की सख्या से ही अवगत होता है....आपने क्या लिखा वो कितना सार्थक है...इससे कोई मतलब नहीं है....और फिर इस टिपण्णी को प्राप्त करने के लिए..साम, दाम ,दंड , भेद सबका भरपूर इस्तेमाल भी किया जाता है....और जब टिपण्णी की सख्या ही जब सबकुछ है तो फिर ....क्या वाह, क्या nice और क्या बहुत खूब... सब मूल्यवान हो जाते हैं.....
अच्छी टिपण्णी करने वालों को भी कहाँ बक्शा जाता है...कितनी बार मुझे ही कहा गया है कि...जब देखो तब कविता लिखती है...टिपण्णी में भी....मैं २०-२५ पोस्ट भी नहीं पढ़ पाती हूँ...क्यूंकि उन्हें पढना , आत्मसात करना और फिर टिपण्णी करना मेरे लिए मैंने रखता है.....टिपण्णी में खाना पूरी करना मुझे कतई पसंद नहीं....लेकिन इनदिनों मैंने भी बहुत भरी मन से बकवास टिपण्णी दी है....
किसी भी पोस्ट अगर अच्छी टिपण्णी देखने को मिलती है तो इसका सीधा अर्थ यह होता है कि पाठक स्वयं को उस रचना से जोड़ पाया है और ....उसे देख पढ़ कर कुछ अपनी बात भी कह पाया है.. और ऐसा ही कुछ मैं अभी कर रही हूँ...
बहुत ही उम्दा आलेख....मन मोह लिया तुमने...
खुश रहो...
दीदी...
ek definiation padhi thi kahin 'Avshyakta avishkaar ki janni hai'
Ab bilkul ulta hai.... ;)
" शायद मै समय गवां रहा हूँ या ब्लागरी तो कभी की जा सकती है. या ऐसा भी क्या है ..मिलता क्या है..कुछ/न्यूनाधिक टिप्पणियां...!!!"
aise phase se abhi abhi guzra hoon...
aage Padhta hoon dekhoon kaise aapne is apradhbodh ko justify kiya hai? 'Eleven minutes' ke ' Protagonist ' ki tarah ?
"टिप्पणियों की आवक बिलकुल भी नहीं थी. कोई गम इसलिए नहीं था क्योंकि इतनी अपेक्षा ही नहीं थी ब्लागिरी से."
sehmat !! (kisi alter-ego ki tarah !!)
बस पढ़ता गया. दिन-दिन पढ़ता गया....
haan padhna zarrori hai, Hum jaiso ke liye isliye ki kahin se kuch 'Inspiration (copy keh ke khud ki beizzati nahi karaunga)' lene ke liye aur aap jaison ke liye isliye ki kahin ye pehle hi to nahi likha gaya tha.
मेरा भ्रम दूर हो गया. जाने कितनों से मैंने कहा ब्लागिरी के बारे में.
Dost blogging ke drawback ke uppar ek kitab likh sakta hoon, aur 'Blogging ke laabh' ke uppar 'Epic'.
क्या मुझे कहना होगा कि आदरणीय ज्ञानदत्त जी, समीर जी, अरविन्द जी, गिरिजेश जी, दर्पण शाह जी, डा.प्रवीण जी.,डा.अनुराग जी, अफलातून जी, अपूर्व जी, सागर साहब, अदा दी, हिमांशु जी, निर्मला जी, शरद जी,अनूप जी
kya baat kahi hai.
Wah Wah...
Ab aapko vishwaas bhi dilaoon to aap nahi kareinge ki ye line abhi tak maine nahi padhi thi. Poore post ki sabse acchi line. :D
Bus Bhav vihwal hoon...
--"श्रीश> अरे मूर्ख श्रीश..! टिप्पणी बड़ी नहीं करते...वरिष्ठ ब्लोगरों से सीखो.वरिष्ठ ब्लॉगरों से कम अब्राहम लिंकन से अधिक सीखो। उन्होने कहा था कि मैं छोटा पत्र लिख सकता था, पर मेरे पास समय कम था! "
Dost aapke blog ke madhyam se maanta hoon ki tippani choti honi chahiye shayad kisi ya kai 'Technical' Reason ki wajah se.
Par Emotion bhi kitne stupid hote hain na logic hi nahi samajhte.
Jis tarah se Apoorv bahi ko kavita choti karne main paresani (So called) hoti hai waise hi mujhe choti tippani karne main.
ab mere apradh bodh ka nirakaran ho gaya ye copy paste (Idum Shreeshum , idum na mamah.) karke:
कोई टिप्पणियां कैसे करे यह तो टिप्पणीकार की व्यक्तिगत स्वंतंत्रता है. वह इसकी व्यापकता को स्वीकारे या ritually इस्तेमाल करे. मै, श्रीश पाठक कौन होता हूँ.......???
तुमसे सहमत हूं...ओर तुम्हारी बेबाकी से प्रभावित भी ...मेरा मानना है एक अच्छा पाठक दस फौरी टिप्पणीकारो से बेहतर है ....
व्रज छोड़ ये मथुरा की गलिओं में ...
यथार्थ मे भी यही होता है जब बडे जान बूझ कर दुख पहुचाने के लिये कोई तीखी बात कहते है तो उस पर कोइ प्रतिक्रिया ना व्यक्त करना ही सबसे बडी प्रतिक्रिया है ब्लाग मेरी नजर मे स्वान्तः सुखाय लेखन है इस पर कोई क्या कहता है इस पर ध्यान देने की आवश्यकता ही नही है
प्रसंगवश बेबाक़ी से लेखन के लिये साधुवाद