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लंबे लाल पहाड़

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"इससे पहले कि सांस लूँ कुछ कहने के लिए साहब वे जान लेते हैं मेरी त्यौरियों से कि क्या कह डालूँगा अभी मै. इससे अधिक वे ये जान लेते हैं कि वह ही क्यूँ  कहूँगा मै..! और फिर जब मै कहता हूँ..कुछ तो उन्हें नहीं दिखता मेरा लाल चेहरा, सुखें ओंठ, गीली-सूनी- धंसी आँखें, पिचके गाल, या और कुछ भी. वे मेरी बात में तलाशते हैं मार्क्सवाद, उदारवाद, बाजारवाद, नक्सलवाद, जातिवाद या फिर मजहबी कतरनें. सो सोचा है , कहूँगा नही उनसे  अब कुछ. साँसे जुटाऊंगा , धौंकनी भर-भर कर ताकि घटे ना आक्सीजन उन लम्बे लाल ईर्ष्या-द्वेष के पहाड़ों को लांघते हुए. " #श्रीश पाठक प्रखर  पेंटिंग साभार :Tsuneko Kokubo (स्रोत :गूगल इमेज)

मुझे उम्मीद नही है..!

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मुझे उम्मीद नही है, कि वे अपनी सोच बदलेंगे.. जिन्हें पीढ़ियों की सोच सँवारने का काम सौपा है..! वे यूँ ही बकबक करेंगे विषयांतर.. सिलेबस आप उलट लेना..! उम्मीद नही करता उनसे, कि वे अपने काम को धंधा नही समझेंगे.. जो प्राइवेट नर्सिंग होम खोलना चाहते हैं..! लिख देंगे फिर एक लम्बी जांच, ...पैसे आप खरच लेना..! क्यों हो उम्मीद उनसे भी, कि वे अपनी लट्ठमार भाषा बदलेंगे.. जिन्हें चौकस रहना था हर तिराहे, नुक्कड़ पर..! खाकी खखारकर डांटेगी,...गाँधी आप लुटा देना..! उम्मीद नही काले कोटों से, कि वे तारिख पे तारीखें नही बढ़वाएंगे.. उन्हें  संवाद कराना था वाद-विवादों पर..! वे फिर अगले  महीने बुलाएँगे...सुलह आप करा लेना..! कत्तई उम्मीद नही उन साहबों से, कि वे आम चेहरे पहचानेंगे.. योजनाओं को जमीन पे लाना था उन्हें...! वे मोटी फाइलें बनायेंगे...सड़कें आप बना लेना..! अब क्या उम्मीद दगाबाजों से, कि वे विकास कार्य करवाएंगे.. जनता को गले लगाना था जिनको ..! वे बस लाल सायरन बजायेंगे, ..कानून आप बना लेना..! उम्मीद तो बस उन लोगों से है, जो तैयार है बदलने के लिए इस क्षण भी.. जो जानते हैं कि शुरुआत स्वयं से होगी....