टच-कीपैडकालीन लोग

कल अचानक ही शहर-भ्रमण करना पड़ा. बस के लिए दिन वाला पास बनवा लिया था. एक छोटी सी गलती या यूँ कहें हड़बड़ी से गलत बस में बैठ गया , जो पहुँचती तो वहीँ थी , पर बहुत ही घूम-फिरके. ये हड़बड़ी बड़ी ही बेतुकी थी , क्योंकि दरअसल मुझे कोई खास जल्दी थी नहीं. सो मै भी बस में बैठा रहा. बहुत दिनों बाद मुझे एक प्रिय काम करने का मौका मिला. चुपचाप लोगों को पढना. फिर तो बस से उतरकर भी ये पढना जारी रहा. कितने तरह के तो लोग हैं....कितनी तरह की प्राथमिकतायें. सबकी चाहें कमोबेश एक जैसी हैं...खुशियों की सबको दरकार बराबर है. पर देखो कितने अलग दिखते हैं लोग और कितनी अलग दिखती है उनकी आदतें. टच-कीपैड के युग में भी बच्चों में शरारतें जिंदा हैं..सुकून हुआ देखकर. तो सब कुछ ख़तम नहीं होने जा रहा. इंसान नयी-नयी चीजों की ओर आकर्षित जरूर होता है लेकिन ज़ेहन में उसे कद्र होती हैं खासियतों की. बच्चों को खेलना तो है ही पर हाँ अब उनके पास भी विकल्प बढ़ गए हैं और रूम और फील्ड का अंतर तो उन्हें पता ही है. ये और बात है , कि बाज़ार ने हरहाल में जीतने की ललक को डी.एन.ए. की तह तक इस मानिंद फिट कर दिया है कि जहाँ वे खुद को बेह...