वो भूंकते कुत्ते...

कड़क सी सर्दी, रजाई में उनींदे से लोग सपनों की खुमारी में आँखें लबालब जब जो जैसा चाहते बुनते रचते, समानांतर सपनों की दुनिया, पर बार-बार टूट जाते वे सपने। खुल जाती डोरी नींद की कच्ची, बरबस मुनमुनाते गाली उन आवारा कुत्तों पर, जो भौंक पड़ते गाहे-बगाहे। (Google Image) क्यों नहीं सो जाते कहीं ये कुत्ते भी मजे लेते मांस के सपनों की, या फिर खेलते खेल ,खो सुधबुध गरमाहट छानते पीढ़ी-दर-पीढ़ी। कुछ लोग होते ही हैं, तनी भवें वाले होती है उन्हें चौंकने की आदत गुर्राते हैं सवाल लेकर, मिले ना मिले जवाब दौड़ते हैं, भूंकते हैं, पीछा करते हैं, लिखते हैं...! जिन्दगी की रेशमी चिकनाइयों से परहेज नहीं पर बिछना नहीं आता, कमबख्तों को। चैन नहीं आता उन्हें, पेट भरे हों या हो गुड़गुड़ी। शायद शगल हो पॉलिटिक्स का, सूंघते हैं पॉलिटिक्स हर जगह, करते हैं पॉलिटिक्स वे शक करते रहते हैं, हक की बात करते रहते हैं। लूजर्स, एक दिन कुत्ते की मौत मर जाते हैं.... ये, ऐसे क्यों होते हैं....? चीयर्स....! देश आगे बढ़ तो रहा है। ये नहीं बदलना चाहते, भुक्खड़। मेमसाहब का कुत्ता कितना...