कैसा लगता है, जब फुटपाथ पर कोई लड़की सिगरेट बेचती है...?
सचमुच एक दृश्य देखा
मैंने दिल्ली के फुटपाथ
पर...और फिर....
कैसा लगता है, जब फुटपाथ पर कोई लड़की सिगरेट बेचती है...?
पर यहाँ लड़की अपनी झोपड़ी के पास मजबूत धागों में गुटखे व चट्टे पर
सिगरेट, पान, सलाई सजा रही है;
अपने पैरों से लाचार भाई के लिए...!
उसे चौका बर्तन करने जाना है,
शाम हो गयी है, उसे दौड़-दौड़ कई काम निपटाने हैं,
उसका छोटा चल नहीं सकता.
हाथ सलामत हैं उसके पर,
इबादत के लिए, खाने के लिए,
पान लगाने के लिए और
कभी कभी रात के सन्नाटों में बहते उसके आँसू पोछने के लिए....
संस्कार,ऊंची अट्टालिकाओं, पैनी शिक्षा, मंहगे कपड़ों के मोहताज नहीं,
ये माता-पिता से विरासत में मिलते हैं....
'और भी' मिला है उन दोनों को 'विरासत' में.
जाने कब कैसे मर गयी माँ और दे गयी दीदी को काम, जाने कितने घरों के....!
गुटखा खाते, बेचते बाप ने गुटखे से पक्की यारी निभायी,
बड़ों की तरह धोखा नहीं दिया....बेवफाई नहीं की.
जान दे दी और कर दी अपनी अगली पीढ़ी भी गुटखे को दान.
आज दीदी रो रही है.
नहीं, नहीं, भूखे नहीं है हम,
अब हमने शाख के ऊंचे आम तोड़ना सीख लिया है.
दीदी रो रही है...बस आज वो देख पायीं..
मुझे सिगरेट पीते,
समझ गयी सुलगती लत.
अपना तिल-तिल सुलगना क्यों नहीं समझ सकेगी वो.
कम बोलती थी, पर कुछ तो बोलती ही थी.
जारी जद्दोजहद का ये हश्र, ये अंजाम..?
आने वाले कल की परिणति रुला रही थी उसे.
वैसे वो जानती थी; अच्छे शब्द, अच्छे अर्थ, अच्छी जगहों पर देते हैं...
संयम, मेहनत का फल चौड़े आँगन वालों के लिए ही मीठा होता है...
छोटे का सिगरेट पीना क्या है...?
विरासत को धोने का संस्कार, लाचारगी की रिक्तता को भरने का उपक्रम..
या विधाता का नियत क्रूर शाश्वत भवितव्य......?
दीदी कयास लगा रही थी
या समझ चुकी थी....
चित्र साभार: गूगल
#श्रीश पाठक प्रखर
मैंने दिल्ली के फुटपाथ
पर...और फिर....
पर यहाँ लड़की अपनी झोपड़ी के पास मजबूत धागों में गुटखे व चट्टे पर
सिगरेट, पान, सलाई सजा रही है;
अपने पैरों से लाचार भाई के लिए...!
उसे चौका बर्तन करने जाना है,
शाम हो गयी है, उसे दौड़-दौड़ कई काम निपटाने हैं,
उसका छोटा चल नहीं सकता.
हाथ सलामत हैं उसके पर,
इबादत के लिए, खाने के लिए,
पान लगाने के लिए और
कभी कभी रात के सन्नाटों में बहते उसके आँसू पोछने के लिए....
संस्कार,ऊंची अट्टालिकाओं, पैनी शिक्षा, मंहगे कपड़ों के मोहताज नहीं,
ये माता-पिता से विरासत में मिलते हैं....
'और भी' मिला है उन दोनों को 'विरासत' में.
जाने कब कैसे मर गयी माँ और दे गयी दीदी को काम, जाने कितने घरों के....!
गुटखा खाते, बेचते बाप ने गुटखे से पक्की यारी निभायी,
बड़ों की तरह धोखा नहीं दिया....बेवफाई नहीं की.
जान दे दी और कर दी अपनी अगली पीढ़ी भी गुटखे को दान.
आज दीदी रो रही है.
नहीं, नहीं, भूखे नहीं है हम,
अब हमने शाख के ऊंचे आम तोड़ना सीख लिया है.
दीदी रो रही है...बस आज वो देख पायीं..
मुझे सिगरेट पीते,
समझ गयी सुलगती लत.
अपना तिल-तिल सुलगना क्यों नहीं समझ सकेगी वो.
कम बोलती थी, पर कुछ तो बोलती ही थी.
जारी जद्दोजहद का ये हश्र, ये अंजाम..?
आने वाले कल की परिणति रुला रही थी उसे.
वैसे वो जानती थी; अच्छे शब्द, अच्छे अर्थ, अच्छी जगहों पर देते हैं...
संयम, मेहनत का फल चौड़े आँगन वालों के लिए ही मीठा होता है...
छोटे का सिगरेट पीना क्या है...?
विरासत को धोने का संस्कार, लाचारगी की रिक्तता को भरने का उपक्रम..
या विधाता का नियत क्रूर शाश्वत भवितव्य......?
दीदी कयास लगा रही थी
या समझ चुकी थी....
चित्र साभार: गूगल
#श्रीश पाठक प्रखर
टिप्पणियाँ
श्रीश जी साधुवाद...
जय हिंद...
मार्मिक रचना
साहित्यिक रचनाओं पर राय देने लायक क्षमताओं से हीन मानता हूँ अपने को ; फिर भी मन को को छु गयी !!
प्राइमरी के मास्टर की दीपमालिका पर्व पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें!!!!
तुम स्नेह अपना दो न दो ,
मै दीप बन जलता रहूँगा !!
अंतिम किस्त-
कुतर्क का कोई स्थान नहीं है जी.....सिद्ध जो करना पड़ेगा?
सक्रियता की कई शर्तें हैं, मौन उत्तर हो सकता है परन्तु आलंबन नहीं. लेखन सुन्दर-असुंदर हो सकता है पर वाणी व कर्म यहाँ प्रत्यक्ष सेतु निर्मित करते हैं. जाहिर है, शब्दों का यायावरी खेल भी चलेगा किन्तु मौलिकता स्वयमेव वरेण्य होगी. पथ-विचलन नहीं होगा, यकीनन नहीं कह सकते, हाँ , प्रासंगिकता का सरोकार नहीं टूटेगा,...अनायास बरबस..गलतियाँ होंगी पर इस कलेवर में आपका विश्वाश बना रहेगा यह मुझे ज्ञात है..... "...दिखता बहुत कुछ है, समझता कुछ-कुछ हूँ,सोचता सब कुछ हूँ...और लिखता इतना कुछ हूँ...
इससे...
कहने की जरुरत नहीं सोने पे सुहागा इसके नीचे प्रतिविम्बित है...
बहुत ही संवेदनशील लगी यह रचना .........