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सितंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बैंडिट क्वीन

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फिल्म देखा तो स्तब्ध रह गया मै, मुझे विश्वास नहीं हुआ कि ऐसा हो सकता है. किसी एक जाति की ज्यादती की तो बात ही नहीं है, क्योकि जो भी शीर्ष पर रहा है, उससे ऐसी ज्यादतियां हुई हैं.पर मानवता सबसे कम मानवों में है, कभी-कभी ऐसा ही लगने लगता है....... खमोश सपाट बचपन, बच्ची नही बोझ थी. सो सौप दी गयी, फ़ेरे कर सात, हैवानियत को... उसने नोचा, बचपन फ़िसलकर गिर पड़ा. बड़ी हो गयी वो. बड़ी हो  गयी तो उनकी खिदमत मे तो जाना ही था. ..इन्कार...,तो खींच ली गयी कोठरी के अन्दर.. ठाकुर मर्दानगी आजमाते रहे.. खड़ी हो गयी वो. तो उन्होने उसे वही नंगी कर दिया.. जहां कभी लंबे घूंघट मे पानी भरती थी. उन्होने उसके कपड़े उतार लिये.. तो उसने भी उतार फ़ेका..लाज समाज का चोला.. सूनी सिसकियों ने थाम ली बन्दूक. पांत मे बिठा खिलाया उन्हे मौत का कबाब.. क्योकि उन्होने उसे बैंडिट क्वीन बना दिया था... . #श्रीश पाठक प्रखर  चित्र साभार: गूगल

लिखी मैंने एक गजल: "रूबरू"

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लाख सोचों ना हो वो रूबरू यारों,  सोच लेने के भरम में दुनिया यारों.   साथ देते रहे हर लम्हा मुस्कुराते हुए,  शाम हर रोज गिला करके सो जाती यारों.   मेरी हर साँस फासले कम करने में गयी,  हर सहर, मंजिलें अपनी खो जाती यारों.   जबसे जागा है, सुना है, लोगो को गाते हुए,  रूबरू वो हो तो आवाज खो जाती यारों. #श्रीश पाठक प्रखर  चित्र साभार: वही गूगल, और कौन..

"...मुझमे तुम कितनी हो..?''

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"...मुझमे तुम कितनी हो..?''  हर आहट, वो सरसराहट लगती है,   जैसे डाल गया हो डाकिया; चिट्ठी   दरवाजे के नीचे से.   अब, हर आहट निराश करती है.  हर महीने टुकड़ों में  मिलने आती रही तुम  देती दस्तक सरसराहटों से .   सारी सरसराहटों से पूरी आहट कभी ना बना सके मै.  तुम्हारे शब्दों से बिम्ब उकेरता मै,   तुम्हे देख पाने के लिए...कागज पर कूंची फिराना जरूरी होता जा रहा है.   कूंची जितनी यानी उमर तुम्हारी. तुम शब्दों में, तुम कूंची में. मुझमे तुम कितनी हो..? तुम में मै कहाँ हूँ....? #श्रीश पाठक प्रखर

चीन की यह घुसपैठ...

देशों के पारस्परिक  सम्बन्ध , व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों से बहुत भिन्न नही होते. जवाबदेही का अंतर होता है. प्राथमिक उद्देश्य अवसर की निरंतरता व सुरक्षा ही होती है. मिले अवसरों का युक्तिसंगत प्रयोग , देश की घरेलू मशीनरी की जिम्मेदारी होती है और सुरक्षा की जिम्मेदारी पारस्परिक व सामूहिक होती है. अभी चीन से लगे सीमाओं पर जो उपद्रव व शोर हो रहा है , एक विचारणीय मसला है. कुछ जरूरी  सवाल है , चीन ऐसा क्यों कर रहा है.. ? क्या सीमाओं पर ऐसी घटनाएँ स्वाभाविक  है या इनका कोई निहितार्थ भी है.. ? क्या ऐसी घटनाएँ पहली बार हैं... ? भारत सरकार ने ऐसी घटनाओ से निपटने के लिए क्या कोई कारगर रणनीति बनाई है.. ? क्या चीन आधिकारिक रूप से इन घटनाओं की पुष्टि करता है.. ? भारत सरकार के पास कितने संभव विकल्प है इन स्थितियों में...आदि-आदि.. इधर कुछ महीनों से माउन्ट गया के पास चुमार सेक्टर लद्दाख के पास चीनी आवा-जाही बढ़ी है. यह इलाका ' बर्फ की खूबसूरत राजकुमारी ' के नाम से आम जनमानस में प्रसिद्द है. करीब १.५ किलोमीटर तक घुसपैठ की जानकारी देश के प्रमुख अखबार बता रहे हैं. चीनी मिलिटरी...

..वैसे हम, बचपन के घनिष्ठ हुआ करते थे.....

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कक्षा छोटी थी,  हम छोटे थे..  हमारा आकाश छोटा था.   कक्षा बड़ी हुई, हम बड़े हुए,  हमारा आकाश बड़ा हुआ.   मस्त थे, व्यस्त थे,  हँसने के अभ्यस्त थे.   त्रस्त हुए, पस्त हुए,  सहने के अभ्यस्त हुए.   तब, परेशान होते थे, निहाल हो जाते थे.  दुखी होते थे, खुशहाल हो जाते थे.   अब, परेशान होते हैं, घबरा जाते हैं, दुखी होते हैं, हैरान हो जाते हैं.   हम साथ-साथ थे.  अब, हम दूर-दूर हैं.   हमीं में से कुछ, ज्यादा बड़े हो गए.  हम कुछ लोग जरा पिछड़ गए.   उनके जीवन के पैमाने , नए हो गए,  हम जरा बेहये हो गए.   हम बेहये,जरा से लोग आपस में खूब बातें कर लेते हैं.   वो बड़े, जरा से लोग आपस में खूब चहचहा लेते हैं.   पर जब कभी शर्मवश उन्हें हमसे;  या कभी प्रेमवश हमें उनसे मिलना पड़ जाता है,  परिस्थितिवश,उन्हें निभाना पड़ जाता है, होकर विवश,  उन्हें ....साथ बैठने का औचित्य...   तो हम, परिचित होते हुए भी अपरिचितों सा चौंकते हैं.  मित्र होते...

कल दिन भर एक कहानी में

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कल रात लिख नहीं पाया. दर असल कल दिन भर एक कहानी में लगा रहा. कहानी तो एक घंटे में ही पूरी हो गयी थी पर दिन भर उसकी खुमारी में रहा. स्वयं क्या मूल्यांकन कर सकूंगा उस कहानी का पर फिर भी पहली बार मै कहानी पूरी कर पाया. कई बार मैंने कई कहानी शुरू किये लिखना, पर एक-दो पेज के बाद लगता, कि जिस टोपिक  के  टारगेट को हिट करना चाह रहा हूँ, उसके लिए जरूरी अनुभव मिस कर रहा हूँ और कहानी अधूरी रह जाती. पहली बार बस बैठा, और एक रौ में लिख डाला. जाने कैसा लिखा, पर मेरे लिए ये महत्वपूर्ण है कि मै कोई कहानी पूरी कर सका, पहली बार. क्योंकि कहानी लिखना मुझे बहुत टफ लगता है. कविता अपने शिल्प के दरम्यान आपको मौका देती है कि आप पाठक के लिए खुद ही वातावरण सृजित करने दे, किन्तु कहानी में माहौल आपको ही निर्मित करना होता है. यहाँ तक कि  पात्रों के नामों का चयन भी महत्वपूर्ण हो जाता है. ऐसा नहीं एक जैसी-तैसी कहानी लिख लेने के बाद मै कहानी लिखने की सैद्धांतिक विधि व मर्यादाएं निर्धारित करना चाह रहा हूँ, दर असल ये चुनौतियाँ मुझे आती हैं, जब भी मै कहानी लिखना चाहता हूँ. मैंने कल जो कहानी ...

आधी रात हो चली है.

आधी रात हो चली है. दिल्ली में झमा-झम बारिश हो रही है. काश के ये बारीश जुलाई-अगस्त में हुई होती तो मेरे पापाजी को कड़ी धूप में खेतों में पानी ना चलवाना पड़ा होता.उनकी तबियत ख़राब हुई सो अलग.JNU के इस ब्रह्मपुत्र हॉस्टल में बैठा-बैठा मै कई बार ये सोच रहा था कि आज का अजीब दिन है.भगदड़ से ५ छोटी लड़कियां मर गयीं तो कैम्पस में भी एक स्टुडेंट ने उचित हैल्थ फसिलिटी के अभाव में दम तोड़ दिया. पूरे दिन कई बातें सोचता रहा. मसलन , अब कुछ नौकरी-वौकरी के बारे में सोचना पड़ेगा.आस-पड़ोस में लड़के सारे काबिल निकल रहे है एक मै हूँ कि पढ़ाई बढ़ती ही जा रही है. एम.फिल. करके JNU से सोचा था कि किसी ना किसी काम का तो होई जाऊंगा...पर एकदम से ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा. इस प्रसिद्द कैम्पस का भी एक मिथक जैसा कलेवर बन पड़ा था,,टूटा. वैसे ढेर सारी खास बातें है इस कैम्पस में पर धीरे - धीरे यहाँ भी अनचाही तब्दीलियाँ आती जा रही हैं, इसका सबसे प्रमुख कारण है नयी आने वाली फैकल्टी में आचार्यत्व का अभाव. वजह...बेहद फोर्मल के कलेवर में होने वाली अपारदर्शी चयन प्रक्रिया.अब यहाँ भी भाई-भतीजावाद दिख जायेगा और देश की कलुषित रा...

"तुम मुस्कुरा रही हो, गंभीर.."

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       विस्तृत प्रांगण   तिरछी लम्बी पगडंडी   अभी बस हलकी चहल-पहल , विश्वविद्यालय में,  दूर; उस सिरे से आती तुम   गंभीर, किन्तु सौम्य,  मद्धिम-मद्धिम तुम में एक मीठा तनाव है, शायद,  हर एक-एक कदम पर जैसे सुलझा रही हो, एक-एक प्रश्न.   तुम मुस्कुरा रही हो; गंभीर   तुम्हे पता हो, जैसे चंचल रहस्य.   तुम्हें 'पहचान' नहीं सका था, मै,   क्योंकि; देखा ही पहली बार तुम्हें 'इसतरह'   वजह जो थी पहली बार तुम मेरे लिए...   अब नहीं लिख सकता उस महसूसे को ,,,   क्योंकि सारे शब्द बासी हैं,,   उनका प्रयोग पहले ही कर लिया गया है, अन्यत्र. अनगिन लोगों के द्वारा...... ! #श्रीश पाठक प्रखर 

" वजूद"

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अब,  कितना कठिन हो चला है..  कतरा-कतरा कर के पल बिताना.  पल दो पल ऐसे हों ,  जब काम की खट-पट ना हो.. इसके लिए हर पल खटते रहे..  बचपन की नैतिक-शिक्षा,  जवानी की मजबूरी और  अधेड़पन की जिम्मेदारियों से उपजी सक्रियता ने..  एक व्यक्तित्व तो दिया..पर...  पल दो पल ठहरकर, उसे महसूसने,  जीने की काबलियत ही सोख ली..  संतुष्टि ; आँख मूँद लेने के बाद ही आ पाती हो जैसे..  पलकों पर ज़माने भर का संस्कार लदा है.... बस गिनी-गिनाई झपकी लेता है.  पूरी मेहनत, पूरी कीमत का रीचार्ज कूपन .. थोड़ा टॉक टाइम , थोडी वैलिडिटी .. यही जिंदगी है अब,  शायद जो एस. एम.एस. बनकर रह जाती है......  बिना 'नाम' के आदमी नहीं हो सकता,  'आदमीयत' पहचान के लिए काफी नहीं कभी भी शायद .....  और 'नाम' का नंबर ....वजूद दस अंकों में....  हम ग्लोबल हो रहे.... आपका नाम क्या है..?  माफ़ करिए.....जी...आपका नंबर क्या है......? #श्रीश पाठक प्रखर  चित्र: गूगल इमेज से ----http://product-image.tradeindia....

तुम....?

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मै बुलाता हूँ तुम्हे, हहाकर मिलता हूँ,   भर लेता हूँ, तुम्हे बाँहों में.   तुम अपनी एक फीकी हंसी में  रंग भरने का प्रयास करते हो.   जूझती जिंदगी में अचानक मिली ,   तुम्हारी जीत पर नाचता हूँ,   और करता हूँ, तुम्हारी ताली की प्रतीक्षा.   मुझे खुश-मिजाज कहते हैं, लोग   क्या मुझे, फड़कता आलिंगन और ताली नहीं चाहिए.....?   मर जाऊँगा एक दिन, तब तुम..   औपचारिक आगमन में ,   मुझे ये श्रद्धांजलि दोगे:   " बड़ी गर्मजोशी से मिलता था.."   मेरी मरी हड्डियों में , फिर एक सिहरन होगी..... !!! #श्रीश पाठक प्रखर चित्र: गूगल इमेज से -http://blog.cold-comfort.org/wp-content/uploads/2009/06/shake-hands.jpg

ताकि...

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मैंने देखा ..'बुढ़ापे' को,   सड़क के एक किनारे दूकान सजाते हुए.   ताकि..   रात को पोते को दबकाकर कहानी सुनाने का 'मुनाफा' बटोर सके.   एक 'बुढ़ापा' ठेला खींच रहा था..   ताकि..   अंतिम तीन रोटियां परोसती बहू को थाली सरकाना भार ना लगे. मैंने समझा;  वो 'बुढ़ापा' दुआ बेचकर कांपते हाथों से सिक्के बटोर रहा था ..;  क्यों...? ताकि..   जलते फेफड़ों के एकदम से रुक जाने पर,  बेटा; कफ़न की कंजूसी ना करे.......! #श्रीश पाठक प्रखर